मेरे गाँव का प्रवेश द्वार
मैं हूँ तो गाँव का ही, पर बचपन से घरवालों ने अपने पूर्वधारणा के वजह से मुझे गाँव के माहौल और समाज से अलग रखने की कोशिश की । इसके वजह से मैंने गाँव में मस्ती तो खूब की पर गाँव की समस्या को उतनी गहराई से नहीं समझ पाया। इसका कारण भी यही है कि लोग भगत सिंह को पसंद तो करते है पर अपना बेटा भगत सिंह बने ऐसा सपने में भी नही सोचते ,शायद उनकी अपनी असुरक्षा की भावना ऐसा कराती हो । इसके वजह से मैं अपने गाँव के समाज में मिल नहीं पाया और मुझे सबसे बुरा जो लगता है कि गाँव के बुजुर्गों के पैर तो खूब छुए है मैंने, पर उनके साथ निश्चिन्तता से बैठ कर दो बातें न कर पाने का मलाल हमेशा रहने वाला है। अब जब मैं गाँव जाता हूँ तो लोग मेरे साथ ऐसा बर्ताव करते है कि मैं चाह कर भी अब मिल नहीं पाता हूँ, मेरे साथ घुसपैठिये जैसे व्यवहार करते है मेरे अपने गाँव के लोग । फिर भी गाँव में मेरा मन जितना लगता है उतना शायद दुनिया के किसी कोने में नहीं लगेगा । पहले चित्र में बाहर के पहाड़, झरने, झील, नदियां और समुन्द्र देखने पर बहुत आकर्षित करते थे और उस समय तमन्ना उठती थी की वही बस जाएंगे पर जब घूमना शुरू किया मैंने तो ये सभी मनोरम दृश्य मृग मरीचिका का अहसास भर दिलाते है । मुझे अपने गाँव का 10-12 पेड़ का बगीचा ही मेरे लिए जन्नत का अहसास दिलाता है, माँ से बात करने में ही कब दिन गुजर जाता है और बहनों के खिंचाई करने में कब समय गुजर जाता है पता ही नहीं लगता, हैंडपंप के पास नहाना ही याद आता है, घर के लोगों द्वारा खिंचाई में ही बड़ा स्नेह मालुम पड़ता है (क्योंकि बाहर में तो लोग मधुर बोलते है पर मन में कितनी कटुता है इसका अहसास नहीं लग पाता ) और घर से दखिन के तरफ झरही नदी( गंडक नदी की डिस्ट्रीब्यूटरी ) के किनारे राधा बाबु का मैदान ही सवाना के घास के मैदान जैसे प्रतीत होता है । कुछ वर्ष मैंने अपने लिए आरक्षित कर रखा है ताकि वृहद् रूप से प्रभाव डाल सकू फिर मैं अपने शरीर के हर एक कोशिका को गाँव के जमीं में मिला कर वहीँ का हो जाऊँगा ताकि कुछ प्रभाव तो प्रभावपूर्ण तरीके से डाल पाऊं। ये प्रबोधन इन कुछ दिनों का है और बड़े तार्किक रूप से उभर रहा है तो इसका अर्थ मैंने लगाया है कि इसमें स्थायित्व का भाव रहेगा ।
मैंने इस डायरी का शीर्षक रखा है नया अनुभव । अब मैं इसपर बात करता हूँ तो हुआ ये है कि पिछले कुछ दिनों से पूर्वी चंपारण के कुछ ग्रामीण (सेमि-अर्बन) क्षेत्रों में मुझे लोगों से रूबरू होने का मौका मुझे मेरे काम ने दिलाया है , और मैं कितना एन्जॉय कर पा रहा हूँ इसके लिए मेरे पास शब्दों की बहुत कमी खल रही है । पिछले कुछ दिनों से गांव के लोगों से खुल के बातचीत हो पा रही है, और मुख्य समस्या पहचान में आ रही है । मुख्य समस्या के समाधान के दिशा में सरकारें बहुत कुछ कर रही है पर उस समस्या पर केंद्रित रूप से टक्कर नहीं दे रही है । वह है लोगों को अपने अधिकारों की जानकारी का न होना जिसके वजह से वें अपने सेवकों (नेता, सरकारी अधिकारी आदि) को अपना मालिक समझ के अभी तक दबते चले जा रहे है। मैंने पाया है कि लोग (ग्रामीण) नेता और अधिकारी पर अविश्वाश तो करते है पर हक़ के साथ अपने अधिकारों की मांग नहीं कर पाते । लोगों को अपने अधिकारों को लेकर सचेत करने के लिए प्राथमिक शिक्षा पर बल देते हुए ही कार्य करना होगा । बहुत लोगों के लिए ये सामान्य सी बातें है पर मेरे लिए अतिमहत्वपूर्ण, ये छोटा सा अनुभव हुआ था इसलिए मैंने सोचा की इसे शब्द रूप दे देने से कहीं न कहीं मेरे चेतना में ये सब बातें अंकित हो जाएंगी ।