कितना अलग है। हम खिड़की पर खड़े होकर वह कुछ नहीं देख पा रहे हैं जो वर्षों से देखते आये थे। सड़कें उदास लगती हैं। सिग्नल पर कोई गाड़ी नहीं दिखती। एकाएक सबकुछ रुक सा गया है। हमने सबकी छुट्टी कर दी है। खाना बनाने वाली, दूधवाला, अख़बार वाला, माली। कोई घर नहीं आता। हम सब बस अपनों के साथ मरना चाहते हैं। और ये भी चाहते हैं कि ये लोग अपनो के साथ मरें। अपने अपने घरों, अपने अपने लोगों के बीच। कितना भयावह है ये सब? लेकिन आखिरी उम्मीद जिंदगी की ही है। हम हंस रहे हैं, बोल रहे हैं, खुश नज़र आ रहे हैं। लेकिन खुश नहीं हैं। कहीं न कहीं एक उदासी है जो परस्पर सीने में धसती जा रही है। दुनिया समझ में आने लगी है। रिश्ते समझ में आने लगे हैं। दोस्त, दुश्मन समझ में आने लगे हैं पर पता है किसी से कोई शिकायत नहीं रह गई है। इस समय कोई कितना भी बड़ा दुश्मन क्यों न हो उसे माफ कर देने का दिल चाह रहा है। मैंने तो इनफैक्ट सभी को माफ भी कर दिया है। ज़िन्दगी गले लगने की इजाज़त नहीं दे रही है। बुरा वक्त है पर संवेदनशीलता नहीं भूलना चाहिए। फिर चाहे पुलिस प्रशासन हो, चाहे नेता, अधिकारी, व्यवसायी या मजदूर। अंधेरा छाया ह