आज़ादी के बाद 1967 तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही होते थे, पर उस समय कुछ विधानसभाओ को भंग करने के कारण ये वर्तमान स्थिति आई| अब यदि पूर्व मे ऐसा किया जा चुका है तो अब करने मे दिक्कत क्या है ? ऐसा यदि हो जाता है तो अनावश्यक रूप से बर्बाद होते धन, समय और उर्जा को कही और विकास के क्षेत्र मे लगाया जा सकता है| अभी पूरी स्थिति इसके पक्ष मे बनी हुई है| चुनाव आयोग ने भी इस कदम को संभव बताया है तो केंद्र सरकार ने तो गृहमंत्री के अध्यक्षता में एक समिति ही बना दी है जो लोकसभा और विधानसभा चुनाओ को एक साथ कराने के सभाव्यता पर विचार करेगी|यूपीए के कार्यकाल मे भी एक समिति बनी थी जिसने इसके पक्ष मे ही अपना मत रखा था| इस चुनाव प्रणाली से सार्वजनिक कोष पर भार तो कम होगा ही साथ ही सुशासन की दिशा मे एक बड़ा कदम होगा| राजनीतिक पार्टियो के कोष पर भी कम दबाव होगा, अब उन्हे उद्योगपतियों से चंदे की ज़रूरत नही होगी, राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे पर तरह तरह की बाते उठती रहती है| चंदा नही लेने से सत्ताधारी पार्टियाँ अपने चुनावी एजेंडे को पूरी करने मे सक्षम होंगी और उनपर केवल उद्योगपतियों के हित