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Showing posts from 2018

मेरा पहला प्यार- "सुगम संगीत" और किशोर कुमार

                                                                बचपन में मन लगाने के लिए रेडियो सुनते सुनते कब इससे इश्क हो गया पता ही नहीं चला, ऐसा शायद ट्रू लव वाले केस में होता हैं शायद. आपको प्यार करने की कोशिश नहीं करनी होती, बस होते चला जाता हैं. और उसमें जब रेडियो ऑन करते ही....एक ख़ास किस्म का म्यूजिक आता फिर आती वो आवाज," ये आकाशवाणी का दिल्ली केंद्र हैं, कुछ देर में आप सुगम संगीत सुनेंगे ". बस इतना बोलते ही पूरा दिल- दिमाग ध्यान के मुद्रा में आ जाता और वो पुरे एकाध घंटे मानो यूँ लगता की महबूबा के पास बैठें हो. भाइ साब एक-एक गाने पर सपने देखते थे हम ,उस रेडियो और अपनी प्यारी से डायरी के साथ. जब बज उठता की," दिल क्या करे जब किसी से प्यार हो जाए" फिर तो ऐसा लगता की मानो हम इस दुनिया में हैं ही नहीं......ऐसे दुनिया में हैं जहाँ नीचे सफ़ेद तिलस्मी कुहरे में कोई तो हैं जिसका हाथ थामें बस आगे बढ़ते जा रहे हैं. किशोर कुमार के इतने सुगम गाने, की बचपन का अनुभवहीन दिल-दिमाग भी आसानी से उसको महसूस करते हुए कल्पनालोक में गोते लगाते उन खुशियों को, दुःख को, दर्द को...मह

फ़िल्म समीक्षा: नया दौर

अभी मैंने 1957 में रिलीज 'नया दौर' फ़िल्म देखा. इसे देखने के बाद जो कुछ भी मेरे जेहन में उपजा उसे शब्द देने की कोशिश कर रहा हूँ. मैं दिलीप कुमार, वैजयंतीमाला या अजित के अदाकारी की बात नहीं करना चाहूंगा.... उनकी विश्लेषण मेरे बस की बात नहीं, बस इतना कहना चाहूंगा कि 60 के दशक में बनी इस फ़िल्म में की गई अदाकारी अपने समय से बहुत आगे थी, शायद अभी के समय से भी मेल नहीं खाती. मेरा उद्देश्य उस फ़िल्म के महीन धागों के बारे में बात करना हैं.             मुझे इस फ़िल्म में निम्न बिंदुओं के संदर्भ में सोचने का मौका मिला 1. सामाजिक सौहार्द 2. मानवीय मूल्य 3. मशीनों, आधुनिक तकनीक, मानव और रोजगार 4. अकेला चला और कारवाँ बनता गया 5. जनभागीदारी की शक्ति 6. आत्मविश्वास की शक्ति और परस्पर विश्वास 7. समाज से ना जुड़ के रहने के नकारात्मक पक्ष ( कारखाने का युवा मालिक के रूप में) 8. प्यार और दोस्ती के महीन धागे                  इस फ़िल्म की शुरुआत ही एक आपसी भाई-बहन और माँ के अपनापन से भरे संबंध के साथ होता हैं. लोगों के अंदर जैसे भाईचारा और आपसी सौहार्द को दिखाया गया है, वो आज के समाज या किरदारो

अहा !.......ये प्यारा जीवन

#A_Page_of_my_January_2018_Dairy रात के 1 बज रहे हैं दुखों के बारे में, भविष्य के चुनौतियों के बारे में सोच रहे हैं और परेशान लग रहे थे. मन में आ रहा था की सब कुछ मैं छोड़ क्यूँ नहीं देता, जीवन में इतना लोड और तनाव लेने का क्या मतलब. लेकिन मेरे साथ ऐसा हमेशा होता हैं जब बहुत परेशान होता हूँ तभी अचानक बहुत खुश हो जाता हूँ.....थोडा अजीब हैं पर सच हैं. हमेशा मन में ये चलते रहता हैं की पता नहीं मैं ये फलां काम करूँ और सफलता ना मिले, कहने का मतलब परिणाम को लेकर हमेशा सशंकित रहते हैं और ये वाजिब भी हैं. लेकिन इस एक मात्र डर से अपने प्रयास में जो कमी आती हैं उससे घबराने लगते हैं. फिर लगता हैं की फेल होने के डर से कोशिश ना करने के ख्याल से, कोशिश करके फेल होने वाला रिस्क ज्यादा अच्छा हैं. कभी कभी भविष्य के चुनौतियों और भावनात्मक स्तर पर लड़ रहे युद्धों से डर लगता हैं लेकिन जब ये डर अपने चरम पर पहुँचता हैं तो माइल्ड स्टील के ब्रेकिंग पॉइंट के ग्राफ जैसे तुरंत डाउन फाल होता हैं. कहने का तात्पर्य ये है की जब बहुत सारी चुनौतियां दिखाई देती हैं तो ये फील होता हैं की हम उस काबिल हैं तभी तो चु

तो यह थे दूधनाथ सिंह

काशीनाथ सिंह जी द्वारा संस्मरण जो हिंदुस्तान के संपादकीय पेज से लिया गया(प्रसिद्ध कथाकार) दूधनाथ मेरे लिए ही नहीं, समूचे हिंदी साहित्य के लिए लंबे अरसे से इलाहाबाद का आकर्षण था। वह आकर्षण आज खत्म हो गया। मैं दो महीने से पुडुचेरी में हूं। इलाहाबाद में नहीं हूूं। मुझ पर क्या गुजर रही है, मैं ही जानता हूं। मैं यहां बहुत दूर हूं, लेकिन मेरी आत्मा नई झूंसी इलाहाबाद में दूधनाथ की देह के आसपास है। मेरा अब यहां मन नहीं लग रहा है। मैं नवंबर में गुड़गांव में दूधनाथ के साथ था हफ्ते भर तक। उसने विदा होने से पहले मुस्कराते हुए गालिब का एक शेर कहा था- था जिंदगी में मर्ज का खटका लगा हुआ/ मरने से पेशतर भी मिरा रंग जर्द था। उससे 55 साल तक मेरा साथ रहा है। उसका इशारा शायद समय-समय पर होती रहने वाली उन बीमारियों की ओर था, जिनमें उसे मौत से जूझना पड़ा था, लेकिन जर्द को मैं उसके ठहाकों, हंंसी-ठट्ठों, उल्लास और छेड़छाड़ से जोड़ता हूं। तमाम संघर्षों के बीच वह एक जीवंत और जिंदादिल इंसान था। वह मेरा दोस्त, सहयात्री लेखक और रिश्ते में समधी था। वह हमारे सातवें दशक का सबसे तेज-तर्रार, सबसे प्

मैं मानुष हूँ या अमानुष

मैं मानुष हूँ या अमानुष, लोगों से डरता हूँ, भावनाओं से डरता हूँ, मिल के बिछड़ जाने से डरता हूँ, डरता हूँ किसी को खो देने से, मेरा अब तक का इतिहास रहा, जो दूर रहा, वो अपना रहा, जो पास रहा, वो दूर रहा, शायद मैं मानुष ना रहा, अभी तक प्रयास रहा, ना आ पाये कोई मेरे अंदर तक, ना समझा, ना समझने ही दिया, ना याद बना, ना बनने दिया, शायद मैं अमानुष ही रहा, जिनका केवल दीदार किया, वर्षों तक उनकी याद रहीं, जिनसे मैंने इकरार किया, उनकी यादें भी नहीं, मैं कौन हूँ जो मानुष भी नहीं, अमानुष भी नहीं, शायद इन दोनों के बीच एक उलझा सा पागल हूँ  । हाँ मैं पागल ही हूँ ☺️.....पगलेट कवि !!  Follow

बचपना था, जो अब नहीं रहा !

मैं कुछ जानता ही नहीं

मैं कुछ जानता ही नहीं, क्या होता हैं टूटकर चाहना, क्या होता है चाँद तोड़ लाना, क्या होता है किसी के लिए जगना, रोना , हँसना मैं कुछ जानता ही नहीं, शायद डरपोक हूँ, कमजोर हूँ या नासमझ हूँ, जानते हुए भी अपने आप से डरता हूँ , डर जाता हूँ किसी से प्यार हो जाने से, डर जाता हूँ उसके बाद के जूनून से, उसके बाद के सुकून को मैं कुछ जानता ही नहीं,  पकडे-जकड़े बैठा हूँ अपने दिल को ज़माने से, की कोई एक ऐसा होगा, जिसे सुकून से सौंप पाऊंगा, एक अनजाने से डर ने रोक रखा हैं अब तक !