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Showing posts from May, 2017

Convocation Speech By Mark Zuckerberg at Harvard on 25May'17

P resident Faust, Board of Overseers, faculty, alumni, friends, proud parents, members of the ad board, and graduates of the greatest university in the world, I’m honored to be with you today because, let’s face it, you accomplished something I never could. If I get through this speech, it’ll be the first time I actually finish something at Harvard. Class of 2017, congratulations! I’m an unlikely speaker, not just because I dropped out, but because we’re technically in the same generation. We walked this yard less than a decade apart, studied the same ideas and slept through the same Ec10 lectures. We may have taken different paths to get here, especially if you came all the way from the Quad, but today I want to share what I’ve learned about our generation and the world we’re building together. But first, the last couple of days have brought back a lot of good memories. How many of you remember exactly what you were doing when you got that email telling you that you got int

आँखों देखी : फिल्म समीक्षा

आँखों में आंसुओं का बाढ़ सा आ गया है 'आँखों देखी' देखने के बाद, बहुत  ही जबरदस्त अभिनय है संजय मिश्रा जी का इस फिल्म में साथ ही अपने अनुभवों से रजत कपूर ने फ़िल्म में जान डाल दी है। इस फिल्म में संजय मिश्रा का किरदार निर्णय लेता है कि जो कुछ भी अनुभव करेंगे उसे ही सच मानेंगे इसी के घटनाक्रम पर आधारित कहानी है। इस फिल्म को जरूर देखा जाना चाहिए यदि आप जीवन के उलझनों में उलझ कर रिश्तों को उलझाते जा रहे है या यदि आप जीवन के यथार्थ को सामान्य तरीके से जीना चाहते है । इसमें बहुत से ऐसे वाक्य मिश्राजी ने बोला है जो हमारे निजी जिंदगियों में आये दिन घटती है । एक जगह पर अपने दोस्तों के साथ बोलते है कि ' हाँ मैं कुएं का मेढक हूँ पर मैं अपने कुएं को बहुत अच्छे से जानता हूँ' कितना सुन्दर और साधारण सा लगने वाला वाक्य है पर इसकी ताकत बहुत बड़ी और आसाधारण है। हम खुद अनुभव करते है कि जीवन में एक दायरे से निकलने में अपना सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार रहते है पर वर्तमान दायरे की अनुभूति नहीं करते है, अगर करते हैं तो सच्ची ख़ुशी वही मिलेगी अगर मेरे अपने अनुभव की बात हो तो, वहीँ अगर फिल्म के

भावना का सम्बन्ध

जब सामने वाला व्यक्ति अपने दिल या मन की बात कहने के उधेड़ बुन या कश्मकश में फंसा हो तभी आप उसे शर्मिंदा ना करते हुए और एहसान ना जताते हुए उसके हित और सुख के लिए अपने सुख दुख की परवाह ना करके कोई कदम उठाते है तो कहा जाना चाहिए की ये दोनों व्यक्तियों में भावना का सम्बन्ध प्रबल है. इसमें एक दूसरे को पूर्णतः समझने की बात होती है. यह सम्बन्ध उसी के साथ विकसित हो सकता है जिसके साथ आपका बचपन ,जवान हुआ हो. ऐसा इसलिए क्योंकि यही वह दौर होता है जब भावनाये एक दूसरे में स्वछंद और उन्मुक्त रूप से बटां करती है. इस स्थिति में व्यक्ति को अपने सुख-दुख की परवाह जितनी नहीं होती उतना सामने वाले के लिए होता है . कालिदास और मल्लिका के सम्बन्ध ऐसे ही रहे है. मोहन राकेश द्वारा लिखे गए नाटक ' आषाढ़ का एक दिन ' में लेखक ने उस सम्बन्ध को बहुत अच्छे से उकेरा है, उकेरा ही नहीं है बल्कि अपने पाठकों के लिए जिवंत बना दिया है। मल्लिका कहती भी है -  "मैंने भावना में एक भावना का वरण किया है। मेरे लिए वह सम्बन्ध और सब सम्बन्धों से बड़ा है। मैं वास्तव में अपनी भावना से प्रेम करती हूँ जो पवित्र है, कोमल है

हर दिन है मदर्स डे

' माँ ' शब्द का उच्चारण करना ही अपने आप में शक्ति का संचार करने के लिए पर्याप्त होता है। जब कभी मैं घर जाता हूँ तो 'माँ' को कई कई बार अपने आप में खोए हुए पाता हूँ शायद अंतस में गहराई से कुछ सोच रही होती है।  उसी क्षण में उनके इस अवस्था से बाहर निकालने के लिए कुछ बातें करने लगता हूँ मुझे अच्छा नहीं लगता कि कोई भविष्य की चिंता करे। मुझे ऐसा लगता है कि जब 'माँ' शांत भी होती है तब भी लाखों बातें 'माँ' के मस्तिष्क में घुमड़ती रहती है ।मैं चाहे कहीं रहूं पर माँ- पापा से दिन में एक बार  बात हो ही जाती है, कभी कभी पता नहीं क्यों इस रोज के प्रश्नों से (खाना खा लिए?, क्या खाएं?,ठीक हो ना?,घर कब आना है? और तमाम प्रश्न) उबन के कारण गुस्सा आता है, पर अब तो आदत बन चुकी है, शाम के आठ बजते ही या तो उधर से कॉल आ जाता है और यदि नहीं आये तो थोड़े घबराहट के साथ मैं ही कॉल कर लेता हूँ । अब ये आदत नहीं छूटने वाली....क्योंकि ये लत का रूप ले चुकी है । बिना माँ के स्थिति को तो सोचते ही दिमाग और दिल में ज्वालामुखी फूटने लगती है।मैंने प्रण किया है कि चाहे जो हो जाएं अपने मार्त